भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्या देखना है और यहाँ कुछ तो बोल तू / कांतिमोहन 'सोज़'
Kavita Kosh से
क्या देखना है और यहाँ कुछ तो बोल तू I
आज़ाद किसलिए है ज़बां कुछ तो बोल तू II
झोली में अपनी डाल के दुनिया की कुल बहार,
क्यूँ मुन्तज़िर खड़ी है ख़िज़ां कुछ तो बोल तू I
बदज़न हैं चारागर से मसीहा हुए फ़रार,
किस पर करें ये ज़ख़्म अयां कुछ तो बोल तू I
तेरे न बोलने से धड़कते नहीं हैं दिल,
ठहरा हुआ है आबे-रवां कुछ तो बोल तू I
बोले तो कारोबारे-जहां राह ले लगे,
ठिठकी खड़ी है काहकशां कुछ तो बोल तू I
ले दे के एक ग़ज़ल ही बची है हमारे पास,
अब ले के इसको जाएँ कहां कुछ तो बोल तू I
अरसा हुआ कि ख़त्म हुई कायनाते-सोज़,
अब चर्ख़ क्यूँ है रक़्सकुनां कुछ तो बोल तू II
13.12.1989