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क्यूँकि वक्त की लिखी तहरीरें मिटाई नहीं जा सकतीं / वंदना गुप्ता

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मंदिर की सीढ़ी
पीपल का पेड़
एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
कोई खंडकाव्य का बीजारोपण
संभावनाओं के दुर्ग
नेपथ्य में चलता चलचित्र
मानसिक द्वन्द का मानचित्र
उथले सागर की सतह पर
मोती ढूँढने का उपक्रम
किसी भी धार्मिक चरित्र को पकड़कर
उसके कथ्य को पकड़कर
सहमत और असहमत होना
और फिर नया दृष्टिकोण देना
नयी परिभाषा गढ़ना
दृष्टि विभेद पैदा करना
आकुलता व्याकुलता के परिणामों से इतर
अपने मापदंड तय करना
समय के मापदंडों पर ना कसकर
अपने मापदंडों पर कसना
दिमागी उलझनों के साथ
भावों और विचारों की उहापोह
और फिर सबका गडमड होना
टूटे तारों को पकड़कर
नव सर्जन को आतुर होना
एक दिशाहीन काव्य का निर्माण करना
क्या वास्तव में साहित्य सर्जन हो सकता है
क्या ऐसे कोई खंडकाव्य बन सकता है
जहाँ सिर्फ़ अपना दृष्टिकोण हो
उस खण्ड की, उस काल की, उस परिस्थिति की
प्रत्येक अवस्था को अनदेखा कर दिया गया हो
और आज एक सन्दर्भ में उसे तौला जा रहा हो

देश, परिस्थिति और काल को अनदेखा कर
कभी खंडकाव्य या काव्य सर्जन नहीं किया जा सकता
नव निर्माण बेशक कर लो
मगर बीते काल की परछाइयों से मुक्त होने के लिए
ज़रूरी नहीं पात्रों को वहीँ से उठाया जाये
क्यों ना एक नया पात्र बनाया जाये
और आज के सन्दर्भ में उसकी उपयोगिता दर्शायी जाये
क्यूँकि वक्त की लिखी तहरीरें मिटाई नहीं जा सकतीं
मगर नयी तहरीर लिखकर
वक्त के सीने पर स्वर्णिम मोहर ज़रूर बनाई जा सकती है