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क्यों फिर / यतींद्रनाथ राही

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क्यों फिर
आँख हमारी ढलकी?
बेलगाम वाणी के घोड़े
और
टूटती मर्यादाएँ
टुकर-टुकर आँसू पीती सी
देख रही
लँगड़ी निष्ठाएँ
कैसी दुष्ट समय की आँधी
सारा ठाठ कवाड़ उड़ गया
जितना नंगा हुआ आदमी
उतना ऊँचे मंच चढ़ गया
सोच-सोच कर
रह बातें हैं
होगी दशा-दिशा
क्या कल की ?
किसे प्रषंसा
किसे वर्जना
किसे फूल मालाएँ डालें
किसे धूल मुट्ठी भर फैकें
किसके पथ पर
दीप उजालें
साँपनाथ या नागनाथ हों
सभी दंश धरने वाले हैं
ये हंसों के पंख लपेटे
भीतर तो
कौवे काले हैं
आँगन से लेकर संसद तक
शीतल ज्वाला
है छल-बल की
कब तक
यह निर्वसन तमाशा
कितना और
गिरेंगे नीचे
कब तक यह हुड़दंग कहो हम
रहें देखते आँखें भीचे
गूँगी बहरी कलम लिखेगी
कब तक
ये आकाशी सपने
अन्तस के पाशाण फोड़कर
आकुल हैं
बहने को झरने
ऐसा क्या हो
आँगन-आँगन
धार बहे फिर
गंगाजल की।