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क्रमशः / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
मेरा बदन हो गया पत्थर का
’सोनजुही-से’ हाथ तुम्हारे
लकड़ी के हो गए
हमारे दिन फीके हो गए
नक्शा बदल गया सारे घर का
भिड़ने लगे ज़ोर से दरवाज़े
छत, आगन, दालान
सभी लगते आधे-आधे
खारीपन भर गया समुन्दर का
सिमट गई हैं कछुए-सी बातें
दिन में दो दिन हुए
रात में चार-चार रातें
तेवर बदला अक्षर-अक्षर का