क्राँति के बीज यूँ ही नहीं पोषित होते हैं / वंदना गुप्ता
जिसने भी लीक से हटकर लिखा
परम्पराओं मान्यताओं को तोडा
पहले तो उसका दोहन ही हुआ
हर पग पर वह तिरस्कृत ही हुआ
उसके दृष्टिकोण को ना कभी समझा गया
नहीं जानना चाहा क्यूँ वह ऐसा करता है
क्यूँ नहीं मानता वह किसी अनदेखे वजूद को
क्यूँ करता है वह विद्रोह
परम्पराओं का धार्मिक ग्रंथों का या सामाजिक मान्यताओं का
कौन-सा कीड़ा कुलबुला रहा है उसके ज़ेहन में
किस बिच्छू के दंश से वह पीड़ित है
कौन-सी सामाजिक कुरीति से वह त्रस्त है
किस आडम्बर ने उसका व्यक्तित्व बदला
किस ढोंग ने उसे प्रतिकार को विवश किया
यूँ ही कोई नहीं उठाता तलवार हाथ में
यूँ नहीं करता कोई वार किसी पर
यूँ ही नहीं चलती कलम किसी के विरोध में
यूँ ही प्रतिशोध नहीं सुलगता किसी भी ह्रदय में
ये समाज में रीतियों के नाम पर
होते ढकोसलों ने ही उसे बनाया विद्रोही
आखिर कब तक मूक दर्शक बन
भावनाओं का बलात्कार होने दे
आखिर कब तक नहीं वह खोखली वर्जनाओं को तोड़े
जिसे देखा नहीं, जिसे जाना नहीं
कैसे उसके अस्तित्व को स्वीकारे
और यदि स्वीकार भी ले
तो क्या ज़रूरी है जैसा कहा गया है वैसा मान भी ले
उसे अपने विवेक की तराजू पर ना तोले
कैसे रूढ़िवादी कुरीतियों के नाम पर
समाज को, उसके अंगों को होम होने दे
किसी को तो जागना होगा
किसी को तो विष पीना होगा
यूँ ही कोई शंकर नहीं बनता
किसी को तो कलम उठानी होगी
फिर चाहे वार तलवार से भी गहरा क्यूँ ना हो
समय की मांग बनना होगा
हर वर्जना को बदलना होगा
आज के परिवेश को समझना होगा
चाहे इसके लिए उसे
खुद को ही क्यूँ ना भस्मीभूत करना पड़े
क्यूँ ना विद्रोह की आग लगानी पड़े
क्यूँ ना एक बीज बोना पड़े
जन चेतना, जन जाग्रति का
ताकि आने वाली पीढियाँ ना
रूढ़ियों का शिकार बने
बेशक आज उसके शब्दों को
कोई ना समझे
बेशक आज ना उसे कोई मान मिले
क्यूँकि जानता है वो
जाने के बाद ही दुनिया याद करती है
और उसके लिखे के
अपने-अपने अर्थ गढ़ती है
नयी-नयी समीक्षाएँ होती हैं
नए दृष्टिकोण उभरते हैं
क्राँति के बीज यूँ ही नहीं पोषित होते हैं
मिटकर ही इतिहास बना करते हैं