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खड़े हु‌ए थे लिये सहारा तरुका / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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खड़े हु‌ए थे लिये सहारा तरु का, था सौन्दर्य अनूप।
दृष्टि चौंधिया‌ई, मैं देख न सकी प्रथम वह द्युतिमय रूप॥
खुले नयन देखे मैंने तब अरुण-चरण-जलजात नवीन।
नूपुर सुभग सुसज्जित सुन्दर नृत्य-कुशल वे कला-प्रवीण॥
नील-श्याम बदनारबिन्द नव-नागर, कृष्ण सुकुचित केश।
पीताबर विद्युत-द्युति आभूषणयुत अङङ्ग मनोहर वेश।
मुक्ता-गुजा हार सुशोभित झूल रही वनमाला वक्ष।
कुटिल भ्रुकुटि, अति दीर्घ नेत्र, रसमय दोनों मनहरण सुदक्ष॥
देख रूप मैं भूली अग-जग लोचन रहे स्तध अनिमेष।
हु‌ई कठिन अति स्थिति, न रही स्मृति, हूँ मैं कौन, कहाँ किस देश॥
देखा मधुर वक्र नयनोंसे नागरने हँस मेरी ओर।
मिले नेत्र-तारे, उमड़ा रस-‌उदधि हृदयमें ओर-न-छोर॥
प्रेमधाम सौन्दर्य-वाण सखि! बिंधा हृदयमें आ सुख-रूप।
हु‌ई तुरंत विकल घायल मैं सुखमय पीड़ा बढ़ी अनूप॥
लज्जा-भय-संकोच-शील सब रमणी-गुण-गौरव शुचि भाव।
मिटा तुरंत किया आकर्षण, रहा एक दर्शनका चाव॥
छल-छल विमल सुकोमल नयन अरुण रस-पूरित हृदय महान।
नाना भाव तरंगित-विस्मित किपत मोहित गत तन-जान॥
उठी लहर, मन हु‌आ भाग अब चलूँ, नहीं पर उठते पैर।
बजे मधुर नूपुर, आये वे निकट तुरंत मनोहर गैर॥