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खलिहान ढोता आदमी / लक्ष्मीकान्त मुकुल
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					बोझा लादे
थके-थके सिर पर
पांजा भर कर लादे
मजदूर उबते नहीं इन दिनों
थक जाते हैं
खलिहान से लौटते हुए खाली हाथ
बोझों में लहसी है पूरी-की-पूरी
दुनिया मजदूर की
देखो, वह उसके साथ
कैसे खेल रहा है आइस-पाइस?
हंसिया ठिठकता है
कि कैसे
कट चुके खेत में
चलते ढेले के बीच
खूंटियां ही बची हर बार
केवल साबुत
खूंटियां चुप हैं
पौधे चुप हैं
हंसिया चुप हैं
चुप हैं सन्नाटों की तह में
मजदूर
ढोते हुए खलिहान
अपनी पीठ पर।
	
	