भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़त / पवन कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाने
क्या सोच के
तेरे ख़त
कल
नदी में
बहाये थे,
ख़त तो
काग“ज“ के थे
गल गए
बह गए
मगर
वो सारे हफर्’ जो
उन पर तूने
लिखे थे
वो सब
अब तक
दरिया में
तैर रहे हैं।