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ख़ुशियाँ हमारी सर-ए-दार तक गईं / 'मुमताज़' मीरज़ा

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ख़ुशियाँ हमारी सर-ए-दार तक गईं ।
रुसवाइयाँ कूचा-बाज़ार तक गईं ।

तनहाइयों ने फ़ासले सारे मिटा दिए,
परछाइयाँ मेरी तेरी दीवार तक गईं ।

वो एहतेराम-ए-ग़म था के लब तक न हिल सके,
नज़रें उठीं तो सर-ए-हद्द-ए-गुफ़्तार तक गईं ।

तुमने जलाया मेरा नशेमन तो ग़म नहीं,
चिनगारियाँ उड़ीं, गुल-ओ-गुलज़ार तक गईं ।

गरक़ब होने वालों को कुछ तो मिली मदद,
साहिल से कुछ सदाएँ मझधार तक गईं।