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खुश होऊँ क्या, नाखुश भी क्या / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
फिर आज गगन भर आया है,
स्वाती का मन ढर आया है;
पर कौन करे स्वागत इनका?
पिंजड़े का बोल पराया है!
पराई आँखों को घन क्या,
बिजली क्या, इन्द्रधनुष भी क्या!
जिनकी सुध ही से मोर मगन
चलते थे नाच किए बन-बन,
जब टूट गए नुपुर के सुर,
तब आए तो क्या आए घन!
पंखिल चाँदों की पतझड़ को
दल क्या, दूर्वा क्या, कुश भी क्या!