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खेतियां नफ़रतों की जो करते रहे / डी. एम. मिश्र

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खेतियां नफ़रतों की जो करते रहे
रात दिन मन ही मन में सुलगते रहे

नीयतेबद का अंज़ाम होता यही
सिर्फ़ दीवार पर सर पटकते रहे

सब खिलौने अकेले उन्हें चाहिए
ज़िद पे बच्चों की तरह मचलते रहे

अक़्ल पर उनकी ऐसा है पर्दा पड़ा
ख़ुद को ज़्यादा समझदार कहते रहे

हम तो उन पर दिलोजां से क़ुर्बान हैं
गो भरोसे का वो खू़न करते रहे

ऐ ख़ुदा फिर भी आंखें नहीं खुल रहीं
हर ख़ता की सज़ा भी भुगतते रहे