खोज में हूँ अपनी प्रजाति के अस्तित्व की / वंदना गुप्ता
मेरे जंगल का मैं
इकलौता वारिस कहो
या इकलौता लुप्तप्राय: प्रजाति
का आखिरी वारिस
खोज में हूँ अपनी प्रजाति के अस्तित्व की
खोज दिशाओं में होती तो हर दिशा छान मारता
खोज धरती में होती तो सारी धरती खोद डालता
खोज आसमान में होती तो सारा आस्माँ नाप मारता
मगर ये खोज तो अपनी प्रजाति के अस्तित्व की है
जिसका कोई पता ठिकाना नहीं
जो नहीं होकर भी है
और होकर भी नहीं है
और जब ऐसी खोजें की जाती हैं
तो स्वंय की मिट्टी को सकोरों में भरा जाता है
कुछ संवेदनाओं के पानी से भिगोया जाता है
बिना आकार दिये निराकार में खोज जारी रखनी होती है
क्योंकि
अस्तित्व की खोज में देह के स्पन्दनों का क्या काम?
अपनी लुप्तप्राय प्रजाति की आखिरी कलम बनने से पहले
इकलौता वारिस कहलवाने से पहले
खोज को प्रामाणिक सिद्ध करना होगा...
आत्मावलोकन की कसौटी पर कसकर...
स्वंय को विलीन करके
अस्तित्व को शाश्वत सिद्ध करना ही खोज की पूर्णता है
क्या मिलेगा मुझे वह बीज जिसके अंकुर उसके गर्भ में समाहित हैं... खोज में हूँ