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ख्वाहिश अपनी यही दिली / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र

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हाँ, यह सच है
घर-बैठे हमको
सपनों की खेप मिली
 
कैसा ताज्ज़ुब
पूरा विश्वहाट आ बैठा
दरवाज़े पर
चौखट अपनी बड़ी पुरानी
पुरखों वाली
यही बड़ा डर
 
हाँ, यह सच है
पिछली भीड़-भाड़ में
इसकी चूल हिली
 
बड़े घराने वाले हैं हम
क्या बतलाएँ
भूख बड़ी है
भाग हमारा -
नये-नये सपनों की
देखो, लगी झड़ी है
 
हाँ यह सच है
शक्ल नहीं
इनमें अपनी है खिली-खिली
 
किसिम-किसिम के
सपने उतरे
घर में सीधे आसमान से
रोने की आवाजें आतीं
किन्तु पड़ोसी के मकान से
 
हाँ, यह सच है
सभी सुखी हों
ख्वाहिश अपनी यही दिली