गंगा के तट पर एक खेत / जगदीश गुप्त
गंगा के तट का एक खेत,
बहिया आई, बह गया अधपकी झुकती बालों के समेत ।
जाने कितने, किस ठौर, किधर, किस साइत में बरसे बादल,
लहरें रह-रह बढ़ चलीं, भर गया डगर-डगर में जल ही जल ।
हँसिया-खुरपी का श्रम डूबा,
उगने-पकने का क्रम डूब,
डूबी रखवारे की कुटिया
जिसमें संझा को दिया जला जाती थी केवट की बिटिया ।
बरतन-भाण्डे, कपड़े-लत्ते,
सब भीज गए, बह गए रोज़ के ईंधन के सूखे पत्ते ।
हर बहा, बहे हरहा गोरू,
रो रही दुलरुआ की जोरू,
जिसका सहेट मिट गया —
और जो थी गिरधरवा की चहेत;
गंगा के तट का एक खेत,
बहिया आई, बह गया अधपकी झुकती बालों के समेत ।
कुछ घटी बाढ़, पौधों के भीजे सिर दीखे,
धरती निकली, ले रहे धूप आकर कछुए समझे-सीखे,
बह चली अरे फिर पुरवैया,
फिर छम-छम करती बढ़ी लहरियाँ, खुले पाल, डोली नैया;
मटमैले जल में परछाईं
धुँधली-धुँधली बनती-मिटती, लहराती साँपों की नाईं ।
फिर घटा नीर, फिर तट उभरे,
कंकड़ उभरे, पत्थर उभरे, टूटे-फूटे कुछ घट उभरे,
चिकनी मिट्टी से सने पाँव —
उनके, जो जाते पार गाँव,
पैरों के रह जाते निशान धँसकर धरती में ठाँव-ठाँव ।
हो गई धूप कुछ कड़ी और,
जल की बिछड़न से हिया दरकने लगा पंक का ठौर- ठौर ।
चान्दनी रात में कर जाता जादू, सपनों में धुला रेत ।
गंगा के तट का एक खेत,
बहिया आई, बह गया अधपकी झुकती बालों के समेत ।