Last modified on 13 सितम्बर 2011, at 21:18

गणतंत्र दिवस पर लौट-लौट कर जाते अपने / विजेन्द्र

गणतंत्र दिवस पर लौट-लौट कर जाते अपने
घर पक्षी खोले डैने ताज़ा उजले-सीने
से हवा काटते मुड़ते तिर्यक- भर जाते सपने-
गान उदासी के नूतन नील गगन में जीने

की कांक्षा से प्रेरित- ॠतु को भासित करने ।
भरी फ़सल दूधिया- दाने चमके आँखों में
किसान की, उतरा माह पके सब पत्ते झरने
को, फूला गेंदा, गुलाब, स्वर्णफूल वसंत में

धागे बाँधे चौखट में आम के, उल्लास नया
जीवन का- चाहे मार रहा पाला सब को
भीतर से, डूबा है सूरज जो चला गया
छोड़ अकेला, नीला वन डरा रहा है हम को।

काल अँधेरा मुँह फाड़े अब खड़ा सामने
मेरी जिजीविषा को लख वह लगा काँपने ।