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गम की धूप , विरह के बादल, आँसू की बरसाते हैं / कुमार अनिल

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गम की धूप, विरह के बादल, आँसू की बरसातें हैं
इस नगरी में क्या क्या मंजर रूप बदल कर आते हैं

जब से तुम बिछड़े हो साथी , घर में वो तन्हाई है
आँगन में पंछी आते हैं तो डरकर उड़ जाते हैं

इनसे जी भर कर खेलो तुम , इनसे ही दिल बहलाओ
संसद से हर एक सड़क तक अब बातें ही बातें हैं

जीवन कि आपाधापी से फ़ुर्सत मिली तो जाऊँगा
अम्बर के मासूम फ़रिश्ते मुझको रोज बुलाते हैं

सारी उम्र लगा कर भी जो बातें समझ न पाए हम
मुफ़्त में अब वो सारी बातें लोग हमें समझाते हैं

जैसे यह दुनिया ज़न्नत हो, जैसे लोग फ़रिश्ते हों
पल पल हम अपनी आँखों को ख़्वाब यही दिखलाते हैं

इस नगरी में भूख के मारे कुछ ऐसे भी लोग हैं जो
रोटी की तस्वीरें रखकर, जेबों में सो जाते हैं

फूल हैं हम, हर आने वाला हमसे खुश्बू पाता है
और कहीं हम जाते हैं तो खुश्बू देकर आते हैं