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गया वसंत । नहीं दिखी खिले अनंत की टहनी / विजेन्द्र
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गया वसंत । नहीं दिखी खिले अनंत की टहनी
अब तक । ख़ूब आँख फाड़कर देखा, जो कहनी
थी लगी सदा अनकहनी, थी हर क्षण सहनी
मुझको व्यथा जो न कह सका तुम से, यह दहनी
है आँच बहुत भीतर, नदिया है वहनी
सतत, पुलिन सूखते लगते, मुर्झाते पात, रहनी
है रात देर तक, खाते रहने से फैनी
गुज़र कहाँ हम दोनों की, सूख गई टहनी
जो बादल की कड़कन से, सबल न होगी- पैनी
है घोर समय की इतनी जैसे जो छैनी
काट रही संकल्प लोह को, प्रतिमा है ढहनी
जो गढ़ ली भ्रम से, खाकर थूकी हो ख़ैनी
अजब खेल जीवन का अब तक समझ न पाया
छंद, ऋचा, गीतों में गाते प्यार न पाया।