गर्भवती का गीत / देवेन्द्र आर्य
इधर कई दिन से वसंत मुझसे बतियाता है
सिरहाने मंजरियों के गुच्छे रख जाता है
तना-तना सा पेट
बदन कुछ भारी-भारी सा
डाल झुका फलदार पेड़ मन है आभारी सा
जैसे सपनों में सपनों के रंग भर गए हों
लम्बी एक उदास नदी के अंग भर गए हों
कच्ची दीवारों पर कोई चित्र बनाता है
रेशम पल्लू कभी भिंगोता कभी गारता है
बूँद बूँद भरता जाता है कुछ मेरे भीतर
फूलों के धक्के
उठती है मीठी एक लहर
चौके में घुसने से ही उबकाई आती है
ख़ुद करती हूँ सुबह शाम को दायी आती है
कभी-कभी हम कहाँ फँस गए
मन खिझियाता है
अब तक जो मीठा लगता था आज तिताता है
सोच सोच कर डर लगता है
कौन सम्हालेगा
इनकी देखभाल
घर आँगन
नन्हा सा बिरवा
और किसी को नहीं पता है
तुम भी चुप रहना
किसके मुँह पर इंद्र धनुष हो किसके मुँह टोना
भोर भए सपने विभोर कोई तुतलाता है
घर का कोना -कोना जैसे सोहर गाता है