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गहरी अन्धेरी खाइयों से निकलकर / वाज़दा ख़ान

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गहरी अन्धेरी खाइयों से निकलकर
बहती गूंजती आवाज़ों
और खिलखिलाहट के संग
खुद को रखती हूं तुम्हारे भीतर
तुम्हारा भरापन खोल देता है
गाढ़े समय का कोई किस्सा
फिर मिलेंगे का कोई विधान
रचा था या रचने को थे
घुल जाती है तुममें
हवाओं के संग यहां वहां डोलती
कोई सर्जनात्मक सोच
लिखती जाती हूं फिर
ज़िन्दगी की कोई तहरीर
तुम्हें एहसास तक नहीं होता
कितना उद्वेग कितनी हलचल
कितनी बेचैनियां झऱ रही हैं
गुलमोहर के फूलों के साथ
खिले हैं जीवन की सीधी तीखी पड़ती धूप में
अपनी लालिमा के साथ तुम अपनी परछाईं
तक हटा लेते हो वहां से
एहतियातन कोई फतवा जारी न हो जाय़े
क्या इतनी गहनता से आवेशित
होती है कविता
क्या उतरती है शाम पर ऐसी कोई रात
क्या गुज़रती है कोई रूह
अनजाने शून्य में ऐसे चुपचाप
क्या पनपती है कोई इन्द्रधनुष
आकाश में कोई परीकथा
ऐसे ही कभी सोचकर देखना एक बार
परतों में दबी रेखायें
अब कितनी अमूर्त हो चली हैं.