भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ग़रीबी से बढ़कर सज़ा ही नहीं है / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
ग़रीबी से बढ़कर सज़ा ही नहीं है
सुकूँ चार पल को मिला ही नहीं है
कहाँ ले के जाऊँ मैं फ़रियाद अपनी
ग़रीबों का कोई ख़ुदा ही नहीं है ?
मुझे फ़िक्र उनकी है जिनके घरों में
कई दिन से चूल्हा जला ही नहीं है
मुहब्बत को भी लोग पैसों से तौलें
दिलों में भी अब कुछ बचा ही नहीं है
हकीमों को किस बात की फ़ीस दूँ फिर
मेरे मर्ज़ की जब दवा ही नहीं है ?
मेरे पास भी जिंदगी है यक़ीनन
मगर इसमें कोई मज़ा ही नहीं है
वही ग़म , वही अश्क ,दामन वही जब
लिखूँ क्या ग़ज़ल कुछ नया ही नहीं है