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ग़रीबी से बढ़कर सज़ा ही नहीं है / डी. एम. मिश्र

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ग़रीबी से बढ़कर सज़ा ही नहीं है
सुकूँ चार पल को मिला ही नहीं है

कहाँ ले के जाऊँ मैं फ़रियाद अपनी
ग़रीबों का कोई ख़ुदा ही नहीं है ?

मुझे फ़िक्र उनकी है जिनके घरों में
कई दिन से चूल्हा जला ही नहीं है

मुहब्बत को भी लोग पैसों से तौलें
दिलों में भी अब कुछ बचा ही नहीं है

हकीमों को किस बात की फ़ीस दूँ फिर
मेरे मर्ज़ की जब दवा ही नहीं है ?

मेरे पास भी जिंदगी है यक़ीनन
मगर इसमें कोई मज़ा ही नहीं है

वही ग़म , वही अश्क ,दामन वही जब
लिखूँ क्या ग़ज़ल कुछ नया ही नहीं है