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ग़र हो मेरी हयात में बस एक काम हो / सिया सचदेव

ग़र हो मेरी हयात में बस एक काम हो
मेरी जुबां से ज़िक्र तेरा सुब्ह ओ शाम हो

हर एक पल मैं तेरी इबादत में गुम रहूँ
सजदे में तेरे जिंदगी मेरी तमाम हो

खिलते रहे चमन में मोहब्बत के फूल ही
दुनिया में नफरतों का न कोई निजाम हो

रुसवा जो हो गए हैं बहुत कम नसीब हैं
ये कौन चाहता है जहाँ में न नाम हो

दिन रात कर रही है दुआ बस यही सिया
मैं जो भी लिखूँ कलम से वो उम्दा कलाम हो