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गाँव कस्बे मुल्क की तस्वीर होती है ग़ज़ल / बाबा बैद्यनाथ झा

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गाँव कस्बे मुल्क की तस्वीर होती है ग़ज़ल
बेजुबानों बेकसों की पीर होती है ग़ज़ल

हुश्न की हर इक अदा का स्वाद इसने चख लिया
आज रोटी से जुड़ी ताबीर होती है ग़ज़ल

पेट में गमछे कसे हों हाथ में खुरपी लिए
लिख रहे जो मुल्क की तक़दीर होती है ग़ज़ल

दे रही तालीम सबको नेक बनने के लिए
सिरफिरों के ही लिए तकरीर होती है ग़ज़ल

नफ़रतों की आग में जो डालते हैं घी सदा
दुष्ट लोगों के लिए विष-तीर होती है ग़ज़ल

जान देते प्यार में जो यह महज़ उनके लिए
कृष्ण-राधा और रांझा-हीर होती है ग़ज़ल

शायरी की राह में जो मील के पत्थर बने
सूर, तुलसी और ग़ालिब, मीर होती है ग़ज़ल

बेचकर ईमान ‘बाबा’ बन रहे गद्दार जो
उन बहकते पांव की जंजीर होती है ग़ज़ल।