भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गिला करें तेज़ पानियों का तो किस ज़बां से / मेहर गेरा
Kavita Kosh से
गिला करें टेक्स पानियों का तो किस ज़बां से
जहां भी चाहा मिले हमें तो वही किनारे
किसी ने आकर न इनके लंगर कभी भी खोले
कुछ ऐसी थीं किश्तियाँ जो अक्सर रहीं किनारे
कहा था उसको कि गहरे पानी में मत उतरना
दिखाई देते नहीं उसे अब कहीं किनारे
हवाओं की सख्तियां थीं लहरें थी मेहर लेकिन
बदलते रिश्तों की कश्तियाँ भी लगीं किनारे।