(25) सीता-वनवास
सङ्कट-सुकृतको सोचत जानि जिय रघुराउ |
सहस द्वादस पञ्चसतमें कछुक है अब आउ ||
भोग पुनि पितु-आयुको, सोउ किए बनै बनाउ |
परिहरे बिनु जानकी नहि और अनघ उपाउ ||
पालिबे असिधार-ब्रत, प्रिय प्रेम-पाल सुभाउ |
होइ हित केहि भाँति, नित सुबिचारु, नहि चित चाउ ||
निपट असमञ्जसहु बिलसति मुख मनोहरताउ |
परम धीर-धुरीन हृदय कि हरष-बिसमय काउ ?||
अनुज-सेवक-सचिव हैं सब सुमति, साध सखाउ |
जान कोउ न जानकी बिनु अगम अलख लखाउ ||
राम जोगवत सीय-मनु, प्रिय-मनहि प्रानप्रियाउ |
परम पावन प्रेम-परमिति समुझि तुलसी गाउ ||