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गीतावली उत्तरकाण्ड पद 21 से 30 तक/पृष्ठ 7

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(25) सीता-वनवास

सङ्कट-सुकृतको सोचत जानि जिय रघुराउ |
सहस द्वादस पञ्चसतमें कछुक है अब आउ ||

भोग पुनि पितु-आयुको, सोउ किए बनै बनाउ |
परिहरे बिनु जानकी नहि और अनघ उपाउ ||

पालिबे असिधार-ब्रत, प्रिय प्रेम-पाल सुभाउ |
होइ हित केहि भाँति, नित सुबिचारु, नहि चित चाउ ||

निपट असमञ्जसहु बिलसति मुख मनोहरताउ |
परम धीर-धुरीन हृदय कि हरष-बिसमय काउ ?||

अनुज-सेवक-सचिव हैं सब सुमति, साध सखाउ |
जान कोउ न जानकी बिनु अगम अलख लखाउ ||

राम जोगवत सीय-मनु, प्रिय-मनहि प्रानप्रियाउ |
परम पावन प्रेम-परमिति समुझि तुलसी गाउ ||