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हनूमान् और रावणकी भेण्ट
राग कान्हरा
सत्य बचन सुनु मातु जानकी !
जनके दुख रघुनाथ दुखित अति, सहज प्रकृति करुनानिधानकी ||
तुव बियोग-सम्भव दारुन दुख बिसरि गई महिमा सुबानकी |
नतु कहु, कहँ रघुपति-सायक-रबि, तम-अनीक कहँ जातुधानकी ||
कहँ हम पशु साखामृग चञ्चल, बात कहौं मैं बिद्यमानकी!
कहँ हरि-सिव-अज-पूज्य-ग्यान-घन, नहि बिसरति वह लगनि कानकी ||
तुव दरसन-सन्देस सुनि हरिको बहुत भई अवलम्ब प्रानकी |
तुलसिदास गुन सुमिरि रामके प्रेम-मगन नहि सुधि अपानकी ||