(22)
वानरसेना की लङ्का यात्रा
राग मारु
जब रघुबीर पयानो कीन्हों |
छुभित सिन्धु, डगमगत महीधर, सजि सारँग कर लीन्हों ||
सुनि कठोर टङ्कोर घोर अति चौङ्के बिधि-त्रिपुरारि |
जटापटल ते चली सुरसरी सकत न सम्भु सँभारि ||
भए बिकल दिगपाल सकल, भय भरे भुवन दस चारि |
खरभर लङ्क, ससङ्क दसानन, गरभ स्रबहिं अरि-नारि ||
कटकटात भट भालु, बिकट मरकट करि केहरि-नाद |
कूदत करि रघुनाथ-सपथ उपरी-उपरा बदि बाद ||
गिरि-तरुधर, नख मुख कराल, रद कालहु करत बिषाद |
चले दस दिसि रिस भरि धरु "धरु कहि,"को बराक मनुजाद ?||
पवन पङ्गु पावक-पतङ्ग-ससि दुरि गए, थके बिमान |
जाचत सुर निमेष, सुरनायक नयन-भार अकुलान ||
गए पूरि सर धूरि, भूरि भय अग थल जलधि समान |
नभ-निसान, हनुमान-हाँक सुनि समुझत कोउ न अपान ||
दिग्गज-कमठ-कोल-सहसानन धरत धरनि धरि धीर |
बारहि बारि अमरषत, करषत, करकैं परीं सरीर ||
चली चमू, चहु ओर सोर, कछु बनै न बरने भीर |
किलकिलात, कसमसत, कोलाहल होत नीरनिधि-तीर ||
जातुधानपति जानि कालबस मिले बिभीषन आइ |
सरनागत-पालक कृपालु कियो तिलक लियो अपनाइ ||
कौतुकही बारिधि बँधाइ उतरे सुबेल-तट जाइ |
तुलसिदास गढ़ देखि फिरे कपि,प्रभु-आगमन सुनाइ ||