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गीतावली सुन्दरकाण्ड पद 21 से 30 तक/पृष्ठ 2

(22)
वानरसेना की लङ्का यात्रा
राग मारु
 
जब रघुबीर पयानो कीन्हों |
छुभित सिन्धु, डगमगत महीधर, सजि सारँग कर लीन्हों ||

सुनि कठोर टङ्कोर घोर अति चौङ्के बिधि-त्रिपुरारि |
जटापटल ते चली सुरसरी सकत न सम्भु सँभारि ||

भए बिकल दिगपाल सकल, भय भरे भुवन दस चारि |
खरभर लङ्क, ससङ्क दसानन, गरभ स्रबहिं अरि-नारि ||

कटकटात भट भालु, बिकट मरकट करि केहरि-नाद |
कूदत करि रघुनाथ-सपथ उपरी-उपरा बदि बाद ||

गिरि-तरुधर, नख मुख कराल, रद कालहु करत बिषाद |
चले दस दिसि रिस भरि धरु "धरु कहि,"को बराक मनुजाद ?||

पवन पङ्गु पावक-पतङ्ग-ससि दुरि गए, थके बिमान |
जाचत सुर निमेष, सुरनायक नयन-भार अकुलान ||

गए पूरि सर धूरि, भूरि भय अग थल जलधि समान |
नभ-निसान, हनुमान-हाँक सुनि समुझत कोउ न अपान ||

दिग्गज-कमठ-कोल-सहसानन धरत धरनि धरि धीर |
बारहि बारि अमरषत, करषत, करकैं परीं सरीर ||

चली चमू, चहु ओर सोर, कछु बनै न बरने भीर |
किलकिलात, कसमसत, कोलाहल होत नीरनिधि-तीर ||

जातुधानपति जानि कालबस मिले बिभीषन आइ |
सरनागत-पालक कृपालु कियो तिलक लियो अपनाइ ||

कौतुकही बारिधि बँधाइ उतरे सुबेल-तट जाइ |
तुलसिदास गढ़ देखि फिरे कपि,प्रभु-आगमन सुनाइ ||