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रामहि करत प्रनाम निहारिकै |
उठे उमँगि आनन्द-प्रेम-परिपूरन बिरद बिचारिकै ||
भयो बिदेह बिभीषन उत, इत प्रभु अपनपौ बिसारिकै |
भलीभाँति भावते भरत-ज्यों भेण्ट्यौ भुजा पसारिकै ||
सादर सबहि मिलाइ समाजहि निपट निकट बैठारिकै |
बूझत छेम-कुसल सप्रेम अपनाइ भरोसे भारिकै ||
नाथ! कुसल-कल्यान-सुमङ्गल बिधि सुख सकल सुधारिकै |
देत-लेत जे नाम रावरो, बिनय करत मुख चारिकै ||
जो मूरति सपने न बिलोकत मुनि-महेस मन मारिकै |
तुलसी तेहि हौं लियो अंक भरि, कहत कछू न सँवारिकै ||