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गुलाबों की नर्इ क़िस्मों से वो खु़शबू नहीं आती /डी. एम मिश्र

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गुलाबों की नर्इ क़िस्मों से वो खु़शबू नहीं आती
बहुत बदला ज़माना वो कबूतर अब न वो पाती।

बढ़ी है रोशनी इसमें तो कोई शक नहीं लेकिन
जिसे हम पूजते थे अब न वो दीया ,न वो बाती।

ज़माने की हवा घर को हमारे छू नहीं सकती
बड़े दावे से कहते थे कभी हम ठोंककर छाती।

महीने भर का बच्चा माँ की ममता को तरसता है
मगर माँ क्या करे दफ़्तर से जब छुट्टी नहीं पाती।

सुना है आदमी की बादलों पर भी हुकूमत है
मगर गर्र्मी में गौरैया कही पानी नहीं पाती।