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गोरखधन्धा और संन्यासी / देवेन्द्र आर्य

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कितना रमणीक दृश्य है पार्थ !
युवा संन्यासी के कन्धे पर है
उम्रदराज़ फ़क़ीर का गृहस्थ हाथ
वो देखो नया सूरज अन्धेरे में छटपटाता
कितना सुन्दर लग रहा है
उगाना है हमें
छटपटाती लालिमा को स्थायित्व देना है

इक्कीसवीं सदी की सांस्कृतिक भाषा में कृष्ण बोले
अब कोई माई का लाल
डुबो के दिखा दे हिन्दुत्व को तो जानूँ !

कनखी से पार्थ ने हिन्दुत्व के दुर्योधनों की ओर देखा
कलयुग में अकेला नहीं रहा वह
मास्क में मुश्किल है पहचान

पहली बार सुना दुर्योधन ने
हिन्दू नहीं हिन्दुत्व ख़तरे में है
ख़तरे में पाँचाली नहीं दीवाली है
जैसे मुसलमान नहीं ख़तरे में होता है इस्लाम

कुटिल मुस्कान थी कन्हैया के होंठों पर
भौंचक्का थीं पार्थ की आँखें

पीठाधीश्वर के पाँव नहीं
कन्धों की प्राण प्रतिष्ठा हो चुकी ऐतिहासिक नगरी में
कन्धे पर संविधान ढोता सन्यासी
गोरख को पुकार रहा है
कहाँ फँसा दिया नाथ
अपन तो खिचड़ी से सन्तुष्ट थे शिव  !
यह पँचमेल नहीं पच रहा

उफ़ ! पिता के अन्तिम दर्शन भी न कर सका
सियासी माया के आगे
ऐसे नहीं तो वैसे आ गई ठगिनिया

आँखों में टिमटिमाता दीप था सबकी
गेरुआ वस्त्रधारी महाराज था मैं भक्तों का
अब नहीं रहा कोई लिहाज़
चरणरज लेने वाले गरज रहे हैं
कितनों की आँखों से टपका आँसू होकर रह गया मैं

राजनीति का गोरखधन्धा समझ में आता आता
कि कृष्ण ने शंखनाद कर दिया
यदाहि यदाहि धर्मस्य........
घण्टे बज उठे अयोध्या में
घड़ियालों की आवाज़ें आने लगीं दिल्ली से
पार्थ के पास कोई विकल्प न था अब
सिवा गोरखबानी के

चल ख़ुसरो घर आपनो....