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गोरखपूर जैसा हो / देवेन्द्र आर्य

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दिलों की घाटियों में बज रहे संतूर जैसा हो,
हो कोई शहर गर तो मेरे गोरखपूर जैसा हो ।

इधर कुसमी का जंगल हो, उधर हो राप्ती बहती,
शहर की माँग में इक गोलघर सिन्दूर जैसा हो ।

कबीरा की तरह जिद्दी, तथागत की तरह त्यागी,
वतन के नाम बिस्मिल की तरह मगरूर जैसा हो ।

यहीं के चौरीचौरा कांड ने गाँधी को बदला था,
भले यह इस समय अपने समय से दूर जैसा हो ।

बहुत मशहूर है दुनियां में गोरखपुर का गीता प्रेस,
नहीं दिखता जहाँ कुछ भी कि जो मशहूर जैसा हो ।

हुए मजनूँ, फिराक और विज्ञ, राही, हिंदी, बंगाली,
शहर में एक परमानन्द कोहेनूर जैसा हो ।

ये है पोद्दार, शिब्बनलाल, राघवदास की धरती,
यहाँ का आदमी फिर किस लिए मजबूर जैसा हो ?

है दस्तावेज, रचना, भंगिमा, जनस्वर ,रियाजुल का,
कहाँ मुमकिन है कोई शहर गोरखपूर जैसा हो ?

हो गोरखनाथ का मंदिर तो एक ईमामबाड़ा भी,
उजाला घर से बेहतर दिल में हो और नूर जैसा हो ।

इबादत इल्म की, इंसानियत की, भाईचारे की,
हमारा रूठना भी प्यार के दस्तूर जैसा हो ।

यही दिल से दुआ करता हूँ मैं, तुमको मेरे भाई,
तुम्हारा शहर मेरे शहर गोरखपूर जैसा हो ।