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ग्रीष्म स्वर्णकार बना भट्टी-सा नगर बर / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

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ग्रीष्म स्वर्णकार बना भट्टी-सा नगर बर,
        घरिया-सा घर वस्त्र भूषण अंगारा-से ।
मारूत की धौंकनी प्रचंड तन फूँके देती,
        उठते बगूले हैं विचित्र धूम धारा-से ।।
छार छार ही है, दम नाक में ही ला रही है,
        बचना कठिन है सनेही और द्वारा से ।
आके घनश्याम जो न देंगे कहीं दर्श रस,
        ताप वश पल में उड़ेंगे प्राण पारा से ।।