भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घंटी / कुंवर नारायण
Kavita Kosh से
फ़ोन की घंटी बजी
मैंने कहा- मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया
दरवाज़े की घंटी बजी
मैंने कहा- मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया
अलार्म की घंटी बजी
मैंने कहा- मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया
एक दिन
मौत की घंटी बजी...
हड़बड़ा कर उठ बैठा-
मैं हूँ... मैं हूँ... मैं हूँ..
मौत ने कहा-
करवट बदल कर सो जाओ।