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घरौंदे तोड़ कर साहिल से यूँ पानी पलटता है / मुनव्वर राना

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घरौंदे तोड़ कर साहिल से यूँ पानी पलटता है
कि जैसे मुफ़लिसी से खेल कर ज़ानी पलटता है

किसी को देखकर रोते हुए हँसना नहीं अच्छा
ये वो आँसू हैं जिनसे तख़्त-ए-सुलतानी पलटता है


कहीं हम सरफ़रोशों को सलाख़ें रोक सकती हैं
कहो ज़िल्ले इलाही से कि ज़िन्दानी पलटता है

सिपाही मोर्चे से उम्र भर पीछे नहीं हटता
सियासतदाँ ज़बाँ दे कर बआसानी पलटता है

तुम्हारा ग़म लहू का एक-एक क़तरा निचोड़ेगा
हमेशा सूद लेकर ही ये अफ़ग़ानी पलटता है