भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घर तो है, दीवारों सा है / अश्वनी शर्मा
Kavita Kosh से
घर तो है, दीवारों सा है
मन अपना बनजारों सा है।
वक्त की फितरत जाने क्या है
दुश्मन है पर यारों सा है।
तौर-तरीके जैसे भी हों
अन्दर कुछ अवतारों सा है।
उसको ज्ञानी कहती दुनिया
जो बासी अखबारों सा है।
जिसको रब कहते आये हैं
कुछ धुंधले आकारों सा है।
एक शख़्सियत लगता है जो
माटी के किरदारों सा है।
किसका दम भरते हो प्यारे
हर आदम बेचारों सा है।