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घिरी घटाएँ घन सावन के घहर घहर बरसे / रंजना वर्मा

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घिरी घटाएँ घन सावन के घहर-घहर बरसे।
कभी लगाई झड़ी कभी यह ठहर-ठहर बरसे॥

पवन झकोरे शीतल सरसे पोर-पोर तन मन
गजल प्यार की जैसी बरखा बहर-बहर बरसे॥

कभी बिला जाते बादल हैं एक झलक दिखला
कभी भरी रस की गागर से पहर-पहर बरसे॥

उमस भरी रातों में खो जाते तारे जुगनू
बिखरे ओस बिंदु ये सारे सहर-सहर बरसे॥

भरे झोंपड़ी और खेत खलिहानों में पानी
नदी ताल कूए पोखर हर नहर-नहर बरसे॥

बगिया बैग झूमते सुख से नाचे मन के मोर
नदी समंदर डुबकी मारे लहर-लहर बरसे॥

गिरे धार मोटी जलधर की वसुधा के आँगन
कहीं गिरा के पतली धारें छहऱ-छहऱ बरसे॥