घुला ही किए भूमि के तृण-तुहिन / रामगोपाल 'रुद्र'
घुला ही किए भूमि के तृण-तुहिन, पर हिमाचल कहाँ घुल सका आज तक?
घुला ही किया नील अम्बर, मगर दाग दिल का कहाँ धुल सका आज तक?
ढुला ही किये आँसुओं के नखत, पर निशाकर कहाँ ढुल सका आज तक?
भरम ही भरम है सभी कुछ, मगर यह भरम भी कहाँ खुल सका आज तक?
कसाई बने आप अपने लिए, आँसुओं की कमाई कमाते रहे!
हहाती रहीं लालसाएँ बँधी, हम तड़पकर छुरी आजमाते रहे!
उजड़ते रहे पात के घोंसले, बाँधकर पर उन्हें हम बसाते रहे!
गलाती रही जो शिखा मोम का मन, उसी को हिये से लगाते रहे!
कुमुद इंदुवंचित न सूखें, ललक के चकोरे अँगारे चबाते रहे!
लहकती चिता नेह की न हो मद्धिम, शलभ प्राण से लौ जगाते रहे!
कहीं प्यास की प्रेरणा ही न रुक जाय, चातक अथक रट लगाते रहे!
गुलों का न फीका पड़े रंग, बुलबुल गुँथे शूल पर मुस्कुराते रहे!