भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चरैवेति चरैवेति... / प्रताप सहगल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चरैवेति-चरैवेति-चरैवेति
सुनने
गुनने
और करने में
बड़ा फर्क है
पहाड़ की छाती को फाड़कर
ज़मीन पर गोदना होता है
अपना इतिहास
उठाना होता है आकाश का भार।
अन्वेषण के रास्ते
दुर्गम और लम्बे
हाथ में फिसलती रेत-सा समय
नहीं रुकता
क्यों रुकें हम
क्यों रुके रास्ता खोजती जलधार
चरैवेति-चरैवेति-चरैवेति।