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चलके लुट जाएँ ग़मे-सूदो-ज़ियां के पहले / कांतिमोहन 'सोज़'

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चलके लुट जाएँ ग़मे-सूदो-ज़ियां के पहले ।
हम न मिट जाएँ कहीं वहमो-गुमां के पहले ।।

चुप हैं सब अहले-चमन उसका कोई ज़िक्र नहीं,
वो जो एक रुत थी यहाँ सर्द खिज़ां के पहले ।

कल को जांबाज़ी की तारीख़ में ये दर्ज रहे,
एक ललकार भी थी आहो-फुग़ां के पहले ।

सर उठाओ कि बहुत पास है तेग़े-क़ातिल,
आँख खूंबार रहे अश्के-रवां के पहले ।

अपनी तारीख़ से सीखा नहीं हमने वरना,
सर कटा देते थे जांबाज़ ज़बां के पहले ।

सोज़ को जो भी कहो फ़र्द वो दीवाना था,
आरज़ू दार की थी रहते-जां के पहले ।।