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चांद कितना बुझा-बुझा सा है / ध्रुव गुप्त
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चांद कितना बुझा-बुझा सा है
आसमां है तो बेपता सा है
ग़म किसी का उदास करता है
ग़ैर से कुछ तो वास्ता सा है
ख़ुद से मिलते ही झुक गईं आंखें
मुझमें कुछ है जो आईना सा है
वो तड़प है, न वो गीली आंखें
रात का रंग कुछ उड़ा सा है
मैं भी अपनी तरह नहीं लगता
और कुछ तू भी दूसरा सा है
दिल के हाथों का खेल है सारा
हम न बंदे, न तू ख़ुदा सा है
हम जहां हैं वहां नहीं हैं अभी
तू जहां है, बहुत ज़रा सा है
सोचने से न हल निकलना था
चल पड़े हैं तो रास्ता सा है