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चार जोड़ी आंखें / प्रताप सहगल

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चार जोड़ी आंखें
इन्तज़ार करती आंखें
झांकता है इन आंखों में
इन्तज़ार।

इन्तज़ार का बिन्दु नहीं है एक
भविष्य में झांकती आंखें
वर्तमान को पकड़ती आंखें
फूलों के सैलाब पर
तैरती आंखें
कतरा-कतरा वर्तमान जीती आंखें
और सुख-सागर से निकलती हर तरंग को
पीती आंखें।

आंखों से झरती खुशबू
फूलों ने ले ली है
आंखों से झरती चमक
पत्तों ने पी ली है
चिड़चिड़ी हवाओं ने
दीवारों पर दम तोड़ दिया है
चार जोड़ी आंखों ने
पूरे मौसम के रुख को
मोड़ दिया है।