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चाहता है जी / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
इन दिनों कुछ बात करना
चाहता है जी अकेले से
चाहता है खोलना जंगी किवाड़ें
धूल जिनके पाँव की बेड़ी बनी है
हथकड़ी साँकल
और वे कोने जहाँ नंगी हवाएँ
बैठ जातीं पारने काजल
उन दिनों को
साफ़ करना चाहता है जी
अकेले से
काट कर सम्बन्ध मौसम से
नदी निर्मल हुई है
तब हुई है प्यास, पानी नहीं
घाट, हरियल पेड़,
देते रहे सम्मोहन
ठहरी नहीं, मानी नहीं
ज़िन्दगी को—
प्यास करना चाहता है जी
अकेले से
दूऽऽर मेले से
इन दिनों कुछ बात करना
चाहता है जी अकेले से