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चुप-चुप रहना सखि / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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नीरवे थाकिस, सखी ओ तुई नीरवे थाकिस

चुप चुप रहना सखी, चुप चुप ही रहना,
काँटा वो प्रेम का—
छाती में बींध उसे रखना ।
तुमको है मिली सुधा, मिटी नहीं
अब तक उसकी क्षुधा, भर दोगी उसमें क्या विष !
जलन अरे, जिसकी सब बींधेगी मर्म,
उसे खींच बाहर क्यों रखना !!

मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल

('गीत वितान' में 'प्रेम' के अन्तर्गत 338 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)