चुप कैसे रह जाएँ / यतींद्रनाथ राही
पत्थर तो हम नहीं
कहेंगे
चुप केसे रह जाएँ
मरती रही बिल्लियाँ लड़कर
बन्दर खाते रहे रोटियाँ
हार-जीत के दर्शक तो थे
बस, बिसात पर बिछी गोटियाँ
सत्ता का है खेल
कुचालें भी चालें होती हैं
बिजयी हुई अनीति
नीतियाँ
सिर धुनती रोती हैं
अपना भी कुछ कर्म-धर्म है
कुछ तो फर्ज़ निभाएँ।
पका खेत है
लूट मची है
पेट भरो या घर ले जाओ
पहरेदार स्वयं बिकते हैं
जहाँ जरूरत, इन्हें खपाओ
कहीं अर्थ है
कहीं मूँछ है
कहाँ देश का हित-चिन्तन है?
वोट बैंक से बस कुर्सी तक
रहा सियासत का मन्थन है
जिसने जना अन्न जल-पोसा
उस पर ही गुर्राएं।
लाश बिछे
या आग लगी हो
लोग रोटियाँ सेक रहे हैं
ष्षीषों के घर
बाहर पत्थर फैक रहे हैं
युग परिवर्तन है
विकास है
या विनाश पथ का संचालन
घाल-मेल है संस्कृतियों का
मानवीय मूल्यों का विघटन
व्यर्थ बजाते गाल
मिटाते
ग्रन्थों की गरिमाएँ।