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चुलबुली किरण / रमेश रंजक
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कितनी खुली हुई है सबसे
ये चुलबुली किरन
(भोर की ये चुलबुली किरन)
घर-घर जाकर भीतर-बाहर
खींच रही है सबकी चादर
हर सोए की खाट उठाकर
फिर हो गई हिरन
घूम रही घर-घर में से
सारे घर इसके हों जैसे
खुल कर रही कैसे-कैसे
डर की नहीं शिकन
स्याही कोनों में सरका दी
चौंके की कुण्डी खड़का दी
ये आज़ादी की शहज़ादी
(बाँध रही छत के छिद्रों में)
टूटे हुए रिबन