चेतना की पर्त / जगदीश गुप्त
जी रहे हम चेतना की एक पतली पर्त में
जी रहे हम ज़िन्दगी की एक भॊली शर्त में
चेतना की पर्त यह पतली, बहुत पतली
कि जैसे एक काग़ज़
एक सीमा
भूत और भविष्य दोनों को विभाजित कर रही-सी
जो चुका है बीत बीतेगा अभी जो
बीच में इसके बहुत पतली जगह है
ठीक ज्यामिति की बताई
एक रेखा
एक सेक्शन
डोलता है उसी में मन।
चेतना की पर्त के पीछे छुपी है मौत
या कोई आलौकिक जोत
कौन जाने —
किन्तु यह कटु सत्य है कोई इसे माने न माने
चेतना की पर्त है पतली बहुत
विस्तृत भले ही हो युगों तक
शुभ्र शैशव की मधुर किलकारियाँ
टूटे खिलौने
अधखिले कौमार्य के सपने सलोने
मुग्ध तरुणाई, दिवस रस स्निग्ध
रातें अलस मृदु स्मृतियों भरी दुख-दग्ध
विरह-मिलन, उसास-आँसू, हास-चुम्बन
अनगिनत छन
ओस-भीगी रंग-भीनी सुबह की मनुहार
दोपहर की दौड़-धूप अपार
फूली हुई माथे की नसें
सामने की भाप उठती प्यालियों की चाय-सी
शाम की गरमागरम बहसें
और पहरों गूँजने वाली हँसी
सब कहाँ हैं?
चेतना की इसी पतली पर्त में —
जी रहे हम ज़िन्दगी की ख़ूबसूरत शर्त में।