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चौथा वर्ष / मरीना स्विताएवा

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चौथा वर्ष।
आँखें...जैसे बर्फ़
भौंहें...जानलेवा।
आज पहली बार
तुम देख रहे हो
क्रेमलिन की ऊँचाइयों से
वह हिमयान।

बर्फ़ के ढेले-ही ढेले
और कलश।
सुनहली गूँज।
रूपहली गूँज।
हाथ...गूँथे हुए
मुँह...चुप।
भौंहे चढ़ाए...नेपोलियन,
तुम सोच में...क्रेमलिन।

...माँ, कहाँ जा रहे हैं ये बर्फ़ के ढेले?
...आगे-आगे छोटा-सा हंस !
महलों, गिरजाघरों, द्वारों के पास से होता हुआ
आगे, छोटा-सा हँस
नीली, मूक
आँखें...चिन्तित।

मरीना, मुझे प्यार करती हो न?
बहुत।
सदा करती रहोगी?
हाँ।

सूरज डूबने ही वाला है
वह जल्द ही चल देगा; वापस छोड़ जाएगा
तुम्हें...बच्चे के कमरे में,
मुझे... ढीठ चिट्ठियाँ पढ़ने
और कुढ़ते रहने के लिए।

और बर्फ़ के ढेले
चलते ही
जा रहे हैं लगातार।

रचनाकाल : 24 मार्च 1916

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह