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छाँह की बाँह / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
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मैंने जब से होश सँभाला है
धूप में ही चलना स्वीकारा है;
इसलिए कि
मैंने यह देखा है
छाँह में आते ही
मेरी ही छाँह ने
छोड़ा है मेरा साथ
छोड़ा है मेरा हाथ
उस समय तक के लिए
जब तक कि मैंने फिर
छाँह छोड़
छाँह की बाँह छोड़
अपना लिया है नहीं
अपना पुराना पथ
जलती-चिलचिलाती हुई
आग भरी धूप का
स्वर्ण-सी अनूप का।
5.12.76