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छाती के हाड़ से दूध झर रहा है! / मुकेश निर्विकार
Kavita Kosh से
रास्ते के एक ओर खड़ा है
चुपचाप
सूखा एक पेड़ उपेक्षित!
काठ हो चुके इसके तने की
सिर्फ एक शाख पर
बचीं है अभी भी
कुछेक हरी-भरी पत्तियाँ
लहलहाती हुई, कुछेक नवल-किसलय
फुटकर बाहर झाँकने को आतुर!
जिन्हे देखकर मेरा हदय
बरबस, पुलकित हो उठता है,
फिर सोचता हूँ
तनिक विस्मित होकर-
न जाने कैसे पोषता होगा
इन नव-पल्लवों को
स्वयं कुशकाय होकर
इस सूखे पेड़ का
यह काठनुमा तना?
ऊष्मा का कुचालक है फिर भी
न जाने कैसे दौड़ती होगी
संवेदनधारा इसके अंतर से
जड़ों से पत्तियों तक?
तभी दूसरी और निगाह जाती है मेरी और
उत्तर मिल गया है मुझे-
सड़क के एक और बैठी है
एक भूखी गरीब माँ
अपने शिशु को उर से लगाए
कुशकाय तन है उसका
मगर फिर भी
उसकी छाती के हाड़ से
दूध झर रहा है !