भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छीजती ज़िन्दगी और मेरा संग्राम / वंदना गुप्ता

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मौन हो जाती है मेरी कलम
मौन हो जाती हैं मेरी संवेदनायें
मौन हो जाती है मेरी सोच
मौन हो जाती हैं मेरी भावनायें
अब तुम तक आते-आते
जानते हो क्यों
तुमने कोई सिरा छोडा ही नहीं
जुडने का या कहो जोडने का
सुनो
अब ना प्रेम उपजता
ना भावनायें हिलोरें लेतीं
ना कोई स्पन्दन होता
क्योंकि
हम आदत भी तो नहीं बन सके
एक दूसरे की
हम चाहत भी तो नहीं बन सके
एक दूसरे की
हम राहत भी तो नहीं बन सके
एक दूसरे की
कहो फिर क्या बचा
जो बाँधे रखे उन धागों को
जहाँ सिवाय गांठों के कुछ बचा ही ना हो
ना अब नही दूँगी तुम्हें उलाहना कोई
क्योंकि
कोई ख्वाहिश ही नही बची तुमसे
बोलूँ, बतियाऊँ, हँसूँ या रोऊँ
ऐसा भी कोई स्रोता नहीं फ़ूट रहा
देखा द्रव्यमान
कितनी निरीहता छा गयी है
कितनी विवशता आ गयी है
जहाँ संज्ञाशून्य सी हो गयी हूँ
और सोच रही हूँ
अभी तो पहला ही पडाव गुजरा है
सफ़र का
आगे क्या होगा
क्या ये बंधन
ये संबंध
ये रिश्ता
ये समझ
इसे कोई मुकाम भी मिलेगा
या यूँ ही हाथियों के पैर तले कुचल जायेगाचींटी बनकर

सच कहूँ
उम्र के इस पडाव का
सबको इंतज़ार होता है
मुझे भी था मगर
वक्त ने नमी छोडी ही नहीं
अब कैसे मन की शाखायें
फिर से हरी भरी हो जायें
कैसे इन पर कोई
कँवल खिल जाये
नहीं, नहीदोषारोपण नहीं कर रही
बस वक्त की कामयाब कोशिशों को देख रही हूँ
और सोच रही हूँ
क्यों जीत गया वक्त हमसे
हमारे संबंध से
क्या कमी रह गयी थी
जिसका फ़ायदा वक्त उठा गया
और हमें बिखरा गया

शायद
कहीं ना कहीं
ना चाहते हुये भी
हमारे दम्भ, हमारा अहम
ही वक्त के हाथों का खिलौना बन गया
और वो अपना काम कर गया

देखो अब क्या बचा?
ना तुम मुझमें
ना मैं तुममें
दो खोखले अस्थिपंजर
देह का लिबास ओढे
दुनियावी रस्म निभाने के लिये
कटिबद्ध हैं ज़िन्दगी रहने तक
आखिर जिम्मेदारियों से तो
नहीं मूँह मोडा जा सकता ना
चाहे रिश्ता कचरे के डिब्बे में पडा
सडांध मारता अपनी आखिरी साँस ही क्यों ना ले रहा हो
जीना है अब हमें इसी तरह
क्योंकि
माफ़ी माँगने या देने की सीमा से पार आ चुके हैं हम
क्योंकि
अब हमारे बीच आ चुकी है अभद्रता, असंयमता
ना केवल आचरण में बल्कि शब्दों में भी
फिर कैसे संभव है
नव निर्माण, नवांकुर, नव सृजन
बिना नमी के

मौन की कचोट, मौन का वार और मौन का संग्राम
शब्दहीन, भावहीन, रसहीन कर गया मुझको और
जीवन की तल्खियों ने स्वादहीन बना दिया मुझको
क्या है कोई टंकारता घंटा उस ओर जो खोल सके
मेरे मन मन्दिर के कपाटों को दुर्लभ देव दर्शन हेतु?

छीजती ज़िन्दगी और मेरा संग्राम अब हार जीत से परे हो चुका है
क्योंकि
कोई जीते या हारे हार निश्चित ही दोनो तरफ़ से मेरी ही है सनम!